बेजुबान पशुओं की जमीन और परिंदों का आसमान छीनने वाले हम कौन ?

कचरा खाने पर मजबूर पशु 
बेजुबानों की हत्या करके उनकी हड्डियां गलाकर, उनके रक्त से हम खुद के लिए औषधियां बना रहे हैं! मवेशियों से ज्यादा दूध उत्पादन के लिए ज़हरीली सुईयाँ चुभाते हमारे हाथ तनिक भी नहीं कंपते.. ! कितने खुदगर्ज हैं हम! क्या हमारी समस्त संवेदनाओं ने दम तोड़ दिया है? हमने परिंदों और मवेशियों की जिंदगियों को बदहाल बना दिया है..सड़कों पर भूख मिटाने के लिए, चारे की तलाश करती लाचार गायें अंततः पॉलीथिन निगलने पर विवश हैं! भीड़ भरी सड़कों पर घिसटती, शोर मचाती गाड़ियां पशुओं को कितना अशांत करती होंगी! हमारा तो खैर मशीनीकरण हो ही रहा है, लेकिन इसका खामियाज़ा बेजुबान पशु क्यों भुगतें? वाहनों के नीचे आकर किसी कुत्ते की मौत पर हम इतने संजीदा क्यों हैं? क्या उन्हें जीने का हक नहीं? या उनकी ज़िंदगियों की कोई कीमत नहीं? वे भी हमारी ही तरह ईश्वर का करिश्मा हैं! हम उन्हें यूं ही कैसे रौंद सकते हैं? ग्रीष्म ऋतु में महज पानी के लिए तड़पते परिंदों को हमने इतना प्यासा बना दिया है कि उनकी मौत हो जाती है! हां हम ही हैं उनके प्राण के प्यासे.. यह सब कुछ हमने ही किया है! क़त्लखानों से आने वाली चीखों व पशुओं का हाड़ - मांस चबाने पर हम इतने सहज क्यों हैं? ओवरलोडेड गाड़ियों में नथे पशुओं को सड़कों पर संघर्ष करते हम हर रोज देखते हैं, बावजूद इसके मानवीय करुणा हमारी क्रूरता तले दबी ही रहती है!हम मनुष्य हैं वे बेजुबान जानवर हैं.. औद्योगीकरण और आधुनिकता की दौड़ में पशुओं की जमीन और परिंदों का आसमान छीनने वाले हम कौन ? नदियां, पेड़-पौधे, पहाड़, झील, झरने, पशु, परिंदे.. यदि ये नहीं तो हम भी नहीं! मैं यह तो नहीं कहता कि आओ जंगल की ओर लौट चलें , पर हमें जंगल उजाड़ने का भी हक नहीं!

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कहाँ तो तय था चरागां हर एक घर के लिए, कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए.

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